उन्नति के चार स्तम्भ (Four Pillars of Success)

जीवन में सर्वांगीण उन्नति के लिए चार प्रकार के बल जरूरी हैं- शारीरिक बल, मानसिक बल, बौद्धिक बल, संगठन बल।
पहला बल है शारीरिक बल। शरीर तन्दरुस्त होना चाहिए। मोटा होना शारीरिक बल नहीं है वरन् शरीर का स्वस्थ होना शारीरिक बल है।
दूसरा बल है मानसिक बल। जरा-जरा बात में क्रोधित हो जाना, जरा-जरा बात में डर जाना, चिढ़ जाना – यह कमजोर मन की निशानी है। जरा-जरा बात में घबराना नहीं चाहिए, चिन्तित-परेशान नहीं होना चाहिए वरन् अपने मन को मजबूत बनाना चाहिए।
तीसरा बल है बुद्धिबल। शास्त्र का ज्ञान पाकर अपना, कुल का, समाज का, अपने राष्ट्र का तथा पूरी मानव-जाति का कल्याण करने की जो बुद्धि है, वही बुद्धिबल है।
शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक बल तो हो, किन्तु संगठन-बल न हो तो व्यक्ति व्यापक कार्य नहीं कर सकता। अतः जीवन में संगठन बल का होना भी आवश्यक है।
ये चारों प्रकार के बल कहाँ से आते हैं? इन सब बलों का मूल केन्द्र है आत्मा। अपना आत्मा-परमात्मा विश्व के सारे बलों का महा खजाना है। बलवानों का बल, बुद्धिमानों की बुद्धि, तेजस्वियों का तेज, योगियों का योग-सामर्थ्य सब वहीं से आते हैं।
ये चारों बल जिस परमात्मा से प्राप्त होते हैं, उस परमात्मा से प्रतिदिन प्रार्थना करनी चाहिएः
'हे भगवान ! तुझमें सब शक्तियाँ हैं। हम तेरे हैं, तू हमारा है। तू पाँच साल के ध्रुव के दिल में प्रकट हो सकता है, तू प्रह्लाद के आगे प्रकट हो सकता है.... हे परमेश्वर ! हे पांडुरंग ! तू हमारे दिल में भी प्रकट होना....'
इस प्रकार हृदयपूर्वक, प्रीतिपूर्वक व शांतभाव से प्रार्थना करते-करते प्रेम और शांति में सराबोर होते जाओ। प्रभुप्रीति और प्रभुशांति सामर्थ्य की जननी है। संयम और धैर्यपूर्वक इन्द्रियों को नियंत्रित रखकर परमात्म-शांति में अपनी स्थिति बढ़ाने वाले को इस आत्म-ईश्वर की संपदा मिलती जाती है। इस प्रकार प्रार्थना करने से तुम्हारे भीतर परमात्म-शांति प्रकट होती जायेगी और परमात्म-शांति से आत्मिक शक्तियाँ प्रकट होती हैं, जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और संगठन बल को बड़ी आसानी से विकसित कर सकती है।
शरारिक बल और मानसिक बल
मनुष्य जीवन की प्राप्ति सृष्टि की एक अनुपम एवं सर्वश्रेष्ठ कृति है और इस मानव शरीर में शिव का सर्वाधिक विलक्षण, महान शक्तिशाली ऊर्जा तन्त्र ‘मस्तिष्क’ अवस्थित है। इस अतिविशिष्ट तन्त्र की शक्ति व क्षमताएँ असीमित है, जिसके बल पर मानसिक शक्तियों का उत्कृष्ट सृजन निरन्तर सृजित होता है। ‘मानसिक शक्ति’ शरीर का वह अनुलनीय शक्तिपुँज है, जो प्रतिपल परिदर्शित होता है, हमारे कर्म और चमत्कारों के सृजन के रूप में, और परमपिता परमेश्वर एवं प्रकृति को आत्मसात करने की चेतना देता है।
मस्तिष्क’ मानव शरीर की शक्ति प्रवाहक अद्भुत कुंजी है, यह ‘मन’ की अनन्त शक्ति का स्रोत है। आवश्यकता है, इस विशाल-चमत्कृत शक्ति के भण्डार के द्वार पर लटके हुये ताले को खोलने की। जिसके परिणाम स्वरूप ‘ज्ञान चक्षु’ खुलते हैं, तन और मन क्षण भर में, आलौकिक शक्तिपॅुंज से प्रकाशमय हो जाता है। इसके साथ ही, मानसिक शक्तियों को श्रेष्ठ, विकसित दिशा प्रदान करने में, सकारात्मक विश्वास और  विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जबकि उसके विपरीत नकारात्मक विश्वास से निराशा एवं हतोत्साहजनक विचार ही उत्पन्न होते हैं।
तुम भी आसन-प्राणायाम आदि के द्वारा अपने तन को तन्दरुस्त रखने की कला सीख लो। जप-ध्यान आदि के द्वारा मन को मजबूत बनाने की युक्ति जान लो। संत-महापुरुषों के श्रीचरणों में आदरसहित बैठकर उनकी अमृतवाणी का पान करके तथा शास्त्रों का अध्ययन कर अपने बौद्धिक बल को बढ़ाने की कुंजी जान लो और आपस में संगठित होकर रहो। यदि तुम्हारे जीवन में ये चारों बल आ जायें तो फिर तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव न होगा।
बौद्धिक बल और संगठन बल

जिस प्राणी के पास बुद्धि है उसके पास सभी तरह का बल भी है। वह कठिन परिस्थितियों का मुकाबला सहजता से करते हुए उस पर विजय पा लेता है। बुद्धिहीन का बल भी निर्रथक है क्योंकि वह उसका उपयोग ही नहीं कर पाता। बुद्धि के बल पर ही छोटे से जीव खरगोश ने महाबली सिंह को कुएं में गिराकर मार डाला। यह उसकी बुद्धि के बल पर ही संभव हो सका। यह एक सच्चाई है कि किसी भी ढंग से समझाने पर भी कोई दुष्ट सज्जन नहीं बन जाता। जैसे घी-दूध से सींचा गया नीम का वृक्ष मीठा नहीं हो जाता इसलिए बुद्धिमता से ही जीवन के हर मोड़ पर विजय पाई जा सकती है। बुद्धिमता और भावनात्मक दोनों ही एक सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं। इसलिए यह आत्म अवलोकन करना भी जरूरी है कि हम जीवन के किसी प्रकार के भी निर्णय लेने के लिए भावनाओं से अधिक बुद्धिमता से काम लें। भावनाओं में बहकर लिए गए निर्णय कभी भी साकार नहीं होते हैं। भावनाओं से अधिक कर्तव्य ऊंचा है। कर्तव्य पालन के लिए हमें भावनाओं को अपने वश में रखना होगा ताकि कभी भी भावनाएं हमारे पर हावी न हों और हम दायित्वों की पूर्ति ईमानदारी से कर सकें। यह जरूरी है कि हम हर काम करने से पहले यह आत्म अवलोकन करें कि इस कार्य में भावना और कर्तव्य का संतुलन कितना है। बस यही एक मार्ग है जो हमें उन्नति की राह पर ले जा सकता है।
संगठनात्मक विकास (OD) किसी संगठन की प्रभावकारिता और व्यावहारिकता को बढ़ाने के लिये एक नियोजित, संगठन-स्तरीय प्रयास होता है।
एक प्रतिक्रिया, एक जटिल शिक्षात्मक रणनीति के रूप में किया है, जिसका उद्देश्य संगठन के विश्वासों, दृष्टिकोणों, मूल्यों और संरचना को बदलना होता है, ताकि उन्हें नई प्रौद्योगिकियों, विपणन और चुनौतियों, तथा स्वतः परिवर्तन की आश्चर्यचकित कर देने वाली दर के साथ बेहतर ढंग से अनुकूलित किया जा सके।
संगठन बल के कार्यों में सदस्यों के बीच कार्य विभाजन, मानक विवादों का निर्माण, एक संचार प्रणाली की उपलब्धि, निरमा का पारेषण सदस्यों का प्रशिक्षण शामिल है।
निष्कर्षतः, मस्तिष्क की शक्तियाँ अतुलित व दिव्य हैं। आज प्रमुख आवश्यकता, अपनी मानसिक क्षमताओं को पहचानने, समझने, उन्नत करने व उनका समुचित उपयोग करने की है। इस तरह मनुष्य अपने ‘मन’ की विषम भावनाओं जैसे; काम, क्रोध, लोभ-मोह, ईष्या-द्वेष, और व्यसन-आलस्य को त्यागकर ही वास्तविक सुख की अनुभूति के साथ ही, सफल व्यक्तित्व एवं उत्तम चरित्र का स्वामी बनता है तथा अपनी समस्त दुर्गम राहें सुगम व सहज बना लेता है। फलस्वरूप जीवन आनन्दमय, शांतिमय, ज्योतिर्मय स्वरूप दिव्यता के आलोक से ओत-प्रोत हो जाता है और ‘मन’ समस्त विक्षेत्रों से हटकर यर्थाथता को धारण करता है। इसलिये ‘मानसिक शक्तियों का सदैव सही प्रतिनिधित्व करें, उसमें अभिनव विकास, शास्त्रों उर्जा-उत्साह का निरन्तर प्रवाह बनाये रखें ताकि अंर्तमन में अदम्य, अक्षुण्ण, अद्भुत, उमंग व उत्साह की धारा अविरल प्रवल होती रहे।